Tuesday, November 3, 2015

छटवां पात्र : बिंदी

जैसे माथे पर चमचम चमकती बिंदी होती है, ठीक वैसे ही दिल्ली के इस मोहल्ले की, गली की चमक है बिंदी.
बिंदी बेहद चुलबुली, मासूम, बिंदास, चंचल लड़की है. घर में मझली लेकिन सबसे समझदार. उसने बारवीं के बाद रेगुलर पढ़ाई छोड़ दी, पूछने पर कहती हैं- क्या होगा दीदी, क्यों पैसा वेस्ट करना मेरी पढ़ाई पर, लाख रुपया तो खर्च होता ही है. मैं प्राइवेट ही ग्रेजुएशन कर लुंगी और फिर हमारे यहाँ तो जल्दी शादी हो जाती हैं. एक बस मेरी ही नही हो रही, बोझ हूँ अपने माँ-बाप पर.
मैंने पूछा- पैसा वेस्ट क्यों? क्या लोग पढ़ते-लिखते नहीं है? अगर ऐसा ही होता तो तुम्हें बचपन से ही पढ़ना नहीं चाहिए था शायद अब तक लाख रुपया बच गया होता!
वो हंसते हुए कहती है- दीदी हमारे यहाँ लड़कियों पर ऐसे पैसा वेस्ट नही करते इससे अच्छा तो मेरे भाई कोई डिप्लोमा कर ले या कोई बाइक ले ले. और मैं भी नही चाहती, मेरे ऊपर पैसा उड़ाने से अच्छा है मेरे भाई को दे दिया जाए.

उसकी इन बातों से पहले-पहल तो चौंक पड़ी और सोचा की ये किस जमाने की बात कर रही है. दिल्ली जैसे महानगर में रहते हुए जहाँ लड़कियां बाहर शहरों से पढ़ने, जॉब करने आती हैं वहां इसकी ऐसी सोच....
मैंने उसे समझाया पर उसकी पैदाइश ऐसे गड्वाली, संकीर्ण सोच वाले परिवार में हुई है कि उसे लाख समझा लो लेकिन उसकी मजबूरियां, मेरी कोशिशों के आगे रूकावट बन खड़ी हो जाती हैं.

उसे इस बात का दुःख है कि उसकी शादी नही हो रही. महज 24 साल की लड़की और शादी न होने का अफ़सोस करना, मेरे मन को कचोटता है. वो कहती है-मेरे पापा को टेंशन होती है कि मेरी शादी नहीं हो रही और मम्मी हर पल ससुराल जाने की ट्रेनिंग देती है. उन्हें तो ये लगता है कि मैं कभी कुछ ठीक से नही कर पाउंगी.

बिंदी की बातें और उसकी पारिवारिक सोच मुझे शर्मिंदा करती है, कहाँ मैं दूसरे लोगों को समझाती हूँ, उन्हें जीवन में आगे बढ़ने और कुछ करने की सलाह देती हूँ वहीँ मेरे सामने रहने वाली बिंदी को मैं समझा भी नही पा रही हूँ. अफ़सोस है ....!!

मैं दिल्ली में अकेले रहते हुए जब भी उदास होती हूँ, तब मुझे बिंदी का चुलबुलापन बहुत राहत देता है. कभी-कभी उसको देख कर आंख भर आती है कि इतनी साफ़ दिल, प्यारी और दुनियादारी से दूर इस भोली लड़की का इस जालिम दुनिया में क्या होगा. बिंदी तो ये तक नहीं जानती कि शादी जिम्मेंदारी है न की माँ-बाप की टेंशन.

लपक-झपक करती, इठलाती, डांस करते हुए अचानक से दरवाजे पर आ जाती है और मैं कितने भी बुरे मूड में क्यों न हूँ वो मुझे खिलखिला के हंसा देती है. दिल्ली में कितने ही लोगों से मिली, मिलती हूँ लेकिन आज तक इतने लम्बे समय में मुझे बिंदी से ज्यादा कोई साफ़ दिल इन्सान नहीं मिला. शायद दिल्ली का प्रदूषण लोगों के दिलों में उतर गया है.

कैसा अजीब संयोग है न....हम कहाँ से कहाँ लोगों से मिलते हैं. उनसे बंधते चले जाते हैं. कई बार थोड़ी ख़ुशी के लिए और कई बार किसी सबक के लिए .... न जाने कब कैसे बिंदी मुझ से बिछड़ जाएगी, पता नहीं! पर दिल से चाहती हूँ कि हम जहाँ भी रहें कभी-न-कभी फिर मिलें और यूँही एक यादगार पल हमें दे जाए...ज़िन्दगी रोजाना...

No comments:

Post a Comment